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दोस्तों, बचपन से हम पढ़ते और सुनते आ रहे हैं की बिना लक्ष्य के आपको कोई भी सफलता हासिल नहीं हो सकती, क्योंकि लक्ष्य के कारण ही हम सही राह चलने की उम्मीद पर कायम रह सकते हैं. लक्ष्य बनाने से ज्यादा सिस्टम का पालन करना महत्वपूर्ण है, ये हम इस विषय के लेख की श्रृंखला के देखेंगे.
जेम्स क्लियर द्वारा लिखित ‘एटॉमिक हैबिट्स’ नामक किताब में उन्होंने यह बताया है कि लक्ष्य से भी ज्यादा महत्वपूर्ण बात होती है- सिस्टम का पालन करना. मतलब किसी बात को करने से आप में एक प्रतिशत भी सुधार हो रहा है, तो वह आपके लक्ष्य से ज्यादा महत्वपूर्ण है, उसेे ही आप बार-बार दोहराएं. किसी चीज की आदत बनाने की तकनीक पर आधारित सभी किताबों में सबसे ज्यादा शक्तिशाली एवं व्यावहारिक किताब है. आइये इस किताब के बारे में जानें.
ब्रिटिश साइकलिंग टीम ‘टीम स्काई’ की हालत बहुत ही खराब थी क्योंकि 1908 से लेकर 2003 तक ओलंपिक गेम में यह टीम सिर्फ एक ही गोल्ड मेडल जीत पाई थी. उनका प्रदर्शन दिन-ब-दिन कम हो जाता जा रहा था और साइकलिंग की सबसे बड़ी रेस ‘टूर डी फ्रांस’ में भी उनका प्रदर्शन सबसे खराब रहा. जिसे देखकर यूरोप की एक साइकिल मैनुफैक्चरिंग कंपनी ने तो उनको साइकिल देने से भी इनकार कर दिया था. क्योंकि उन को डर था कि कहीं लोगों को पता चल गया कि ब्रिटिश साइकलिंग टीम उनकी साइकिल का उपयोग करती है, तो उनकी सेल्स पर भी काफी बुरा असर पड़ सकता है.
ऐसी बहुत सारी समस्याओं पर उपाय निकालने के लिए ब्रिटिश साइकलिंग ऑर्गेनाइजेशन ने डेव ब्रेलस्फोर्ड को नए कोच के रूप में काम करने का मौका दिया. डेव ब्रेलस्फोर्ड के काम का तरीका पिछले सभी कोच से अलग था. वे रणनीति पर ज्यादा ध्यान देते थे. उनकी रणनीति “The Aggregation of Marginal Gains” पर आधारित थी. मतलब हमारे काम के छोटे से छोटेेे हिस्से को 1% सुधार से किया जाए तो आखिर में सभी हिस्सों को जोड़ने पर उत्कृष्ट परिणाम मिल सकते हैं.
ब्रेलस्फोर्ड ने इसी सिद्धांत को अपने काम में लागू किया. उन्होंने साइकिल की सीट फिर से एक बार बनवाई जो ज्यादा आरामदायक हो, साइकिल सवारों के लिए अलग-अलग टी-शर्ट मंगवाए जो वजन में हल्के हो, टायर की अच्छी ग्रिप पर भी उन्होंने ध्यान दिया. यहीं पर भी नहीं रुके, उन्होंने हर एक एक चीज में 1% सुधार करने की कोशिश की जो साइकिलिंग से सम्बंधित थी. उन्होंने कुछ स्पेशल बेड पर स्पेशल तकिए भी बनवाये, ताकि सवार अच्छी नींद ले सके. उन्होंंने डॉक्टर लोगों की हाथ साफ करने की तकनीक भी उन्हेंं सिखाई, ताकि वे कम बीमार पड़े. साइकिल सवारों के लिए अलग-अलग मसाज की सिफारिश की, ताकि उनकी मांसपेशियों को जल्दी आराम मिल सकें.
डेव ब्रेलस्फोर्ड का सिद्धांत के परिणाम
कुल मिला कर डेव ब्रेलस्फोर्ड ने सवारों की आंखों में डालने के आई ड्रॉप से लेकर साइकिल की चेन मेंं लगनेे वाले ऑइल तक सभी चीजों को फिर एक बार बनवाया और 1% सुधार की कोशिश की. इसके परिणाम उन्हें 2008 की बीजिंग में हुए ओलंपिक गेम्स में देखने को मिले. उस बार स्वर्ण पदक विजेताओं में से 60% स्वर्ण पदक विजेता उनकी ही टीम के थे और लंदन ओलंपिक में उनकी टीम ने 9 ओलंपिक और 7 वर्ल्ड रिकॉर्ड बनाएं. डेव ब्रेलस्फोर्ड के सिद्धांत ने 2007 से लेकर 2017 तक के 10 साल में ही साधारण सी साइकलिंग टीम को 178 वर्ल्ड चैंपियनशिप 66 ओलंपिक स्वर्ण पदक और 5 टूर डी फ्रांस में जीत हासिल करने के काबिल बना दिया.
आखिर सिस्टम का पालन कैसे करें?
वैसे 1% सुधार को तो हम नोटिस भी नहीं कर सकते लेकिन लंबी दूरी में यह बात काफी प्रभावी परिणाम दे सकती है. लेखक कहते हैं कि कुछ पाने के लिए आप लक्ष्य से ज्यादा एक सिस्टम बनाकर उसी पर ध्यान दें, क्योंकि लक्ष्य सीधे परिणाम से संबंधित है, जबकि सिस्टम पूरी प्रक्रिया से संबंधित है जो आपको आपके लक्ष्य तक पहुंचा सकती है. उदाहरण के तौर पर हेल्थी और स्वस्थ शरीर बनाना एक लक्ष्य है, लेकिन स्वच्छ और स्वस्थ खाना और व्यायाम करना एक सिस्टम है. परीक्षा में 98% मार्क्स लाना लक्ष्य है लेकिन हर रोज की पढ़ाई और उस विषय को अच्छे से समझना यह सिस्टम है.
लक्ष्य रखना अपनी दिशा सेट करने के लिए ठीक है. लेकिन अगर आप सफल होना चाहते हो तो आपको सिस्टम का पालन करना पड़ेगा, क्योंकि विनर और लूजर दोनों के लक्ष्य तो समान होते हैं. लेकिन जो सिस्टम को पालन करते हुए लगातार छोटे-छोटे सुधार करता है वह अपने लक्ष्य को आसानी से पा सकता है. इसीलिए तो लक्ष रखते हुए सिस्टम का पालन करने वाले को विनर यानी विजेता कहते हैं और कुछ भी ना करने वाले को लूजर कहते हैं.
जैसे कोई भी मटेरियल छोटे-छोटे एटम से बना होता है, ठीक उसी तरह उल्लेखनीय परिणाम भी ‘एटॉमिक हैबिट’ से बने होते हैं इसलिए आप भी उल्लेखनीय परिणाम देखना चाहते हैं तो लक्ष्य से ज्यादा सिस्टम पर ध्यान दें.
हम अपनी आदतें किस तरह बदल सकते हैं?
सामान्यतः हैबिट अर्थात आदतें दो तरह से बदली जा सकती है.
1. आउटकम बेस्ड (Outcome Based)
2. आईडेंटिटी बेस्ड (Identity Based)
ज्यादातर लोग अपनी आदतों को आउटकम के जरिए बदलना चाहते हैं, लेकिन इसके बजाय हमें आईडेंटिटी बेस्ड आदतों पालन करना चाहिए. उदाहरण के तौर पर, मान लीजिए दो आदमी सिगरेट पीना छोड़ना चाहते हैं. एक आदमी को आप सिगरेट पीने के लिए कहेंगे तो वह उत्तर देगा, जी नहीं, मैं सिगरेट छोड़नेे का प्रयास कर रहा हूं. लेकिन वही दूसरा आदमी कहेगा की मैं सिगरेट नहीं पीता! यह वाक्य बहुत ही छोटा है परंतु इसके परिणाम बहुत बड़े हैं.
लोग अपने जीवन में सुधार तो जरूर लाना चाहते हैं, लेकिन अपने आईडेंटिटी बदलना नहीं चाहते. इसीलिए ही तो वे ज्यादा कुछ बदलाव नहीं ला सकते. क्योंकि हमारे सभी कार्य हमारे ‘सेट ऑफ बिलीफ‘ से जुड़े होते हैं, अर्थात जो काम आप बार-बार करतेे हो वही आपकी आईडेंटिटी बन जाती है. जब भी आप कुुछ लिखते, हो तो आपकी लिखावट में एक आईडेंटिटी आ जाती है. जब भी आप लोगों से आत्मविश्वास के साथ बात करते हो, तो आपकी बात करनेे की आइडेंटिटी बनती है. इसलिए आप ठान लें आप क्या बनना चाहते हो और उसमें छोटे-छोटे बदलाव करते रहें.
आशा है आपको ‘लक्ष्य बनाने से ज्यादा सिस्टम का पालन करना महत्वपूर्ण है’ इस लेख का पहला भाग बहुत पसंद आया होगा. इस लेख का अगला भाग हम बहुत जल्द प्रसारित करेंगे, तो हमारे साथ जुड़े रहें और अपने दोस्तों के साथ इसे जरूर शेयर करें.
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© संतोष साळवे
एस सॉफ्ट ग्रुप इंडिया