बुलडोज़र राज बनाम लोकतंत्र और संवैधानिक मूल्य

इन दिनों राजनीति में बुलडोजर का ट्रेंड चल रहा है. यूपी चुनाव के बाद यह मान लिया गया है कि जितना बुलडोजर दौड़ेगा, बहुमत उतना ही बढ़ेगा. यूपी की राजनीति में अपार सफलता पाने के बाद बुलडोजर अब मध्यप्रदेश होते हुए गुजरात और दिल्ली तक पहुंच चुका है. बुलडोजर की कहानी की शुरुआत होती है, जुलाई 2020 से. जब बिकरू हत्याकांड मामले के मुख्य आरोपी विकास दुबे के घर और पूरे कैंपस को जमींदोज कर दिया गया था.

रेप और हत्या जैसे जघन्य अपराधों में लिप्त होने वाले अभियुक्तों के खिलाफ इस तरह की कार्रवाई को ले कर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने काफी प्रसिद्धि पाई है. यही वजह रही कि यूपी चुनाव के दौरान ‘बुलडोजर’ को सरकार की मुख्य उपलब्धि के तौर पर पेश किया गया. इन कार्रवाइयों पर गीत भी बने, जनसभाओं में इस की जम कर चर्चा हुई और लोगों को बताया गया कि जीत कर दोबारा आने पर इसे और तेज किया जाएगा. ‘बुलडोजर बाबा’ के तौर पर प्रचारित किए जाने की वजह से ही योगी आदित्यनाथ दूसरी बार यूपी में सरकार बनाने में सफल रहे.

शायद यही वजह है कि मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान को ‘बुलडोजर मामा’ के तौर पर प्रचारित किया जा रहा है. मध्य प्रदेश सरकार का दावा है कि पिछले तीन महीनों में 2,244 एकड़ जमीन भूमि माफियाओं के कब्जे से मुक्त कराई गई हैं. जिस की कीमत 671 करोड़ बताई गई है. जनवरी से मार्च महीने के बीच 1,791 केस दर्ज करवाए गए हैं. इन सभी ने सरकारी जमीन हथिया रखी थी. दावे के मुताबिक सरकार ने 3,814 अवैध निर्माण गिराए हैं. इन दिनों शिवराज सार्वजनिक मंचों से कमिश्नर, कलेक्टर, आईजी-एसपी को बुलडोजर चलाने को कह रहे हैं. यानी कि जब भी कोई अपराध हो तो प्रशासन ऐसे लोगों के अतिक्रमण और अवैध निर्माण की तलाश कर बुलडोजर चलाने से नहीं चूके.

सवाल उठता है कि बिना किसी का दोष सिद्ध हुए पुलिस किसी के घर पर बुलडोजर कैसे चला सकती है? कानूनी तौर पर इस को ले कर क्या गाइडलाइन है? अगर हम गाइडलाइन की बात करे तो

कानूनी तौर पर इस को ले कर क्या गाइडलाइन है
कानूनी तौर पर इस को ले कर क्या गाइडलाइन है

-FIR दर्ज होने से मकान तोड़ने की इजाजत नहीं मिलती.

-इस तरह किसी की दुकान या मकान तोड़ना गलत है.

-किसी को उस के अधिकारों से वंचित नहीं किया जा सकता.

-आर्टिकल 300 A के तहत संविधान लोगों को संपत्ति का अधिकार देता है.

-अवैध निर्माण को तोड़ने के लिए भी प्रक्रिया को मानना होता है.

-सब से पहले नोटिस देना होता है और आरोपी के पक्ष को सुनना भी होता है.

-चिह्नित की गई संपत्ति अवैध है या नहीं? सुनिश्चित करना होता है.

-कोर्ट में भी इस फैसले को चुनौती दी जा सकती है.

-CRPC की धारा 145, 146 डीएम और मजिस्ट्रेट को अवैध संपत्ति नष्ट करने का अधिकार देती है.

-शांति भंग होने की स्थिति या विवाद वाली बात में संपत्ति अटैच हो सकती है.

-सीधे बुलडोजर चला कर किसी का घर तोड़ देना कानून में कहीं नहीं है. यह क़दम कानूनी दृष्टी से गलत एवं गैर क़ानूनी है.

हालांकि इस तरह की कार्रवाई को ले कर बहुत सारे सवाल उठाए जा रहे हैं. लेकिन किसी भी कोर्ट की तरफ से इस मामले में अब तक स्वत: संज्ञान नहीं लिया गया है.

पहले बुलडोजर हिन्दुत्व के विकास के दौर में नहीं था, बल्कि उसे इस का एक अलग संस्करण कहा जा सकता है. बुलडोजर का आगमन बुलडोजर बाबा के नाम से विख्यात उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के साथ हुआ. राम जन्मभूमि आंदोलन ने भाजपा को भारतीय राजनीति में एक शक्तिशाली ताकत के रूप में उभरने में मदद की – 1984 में लोकसभा की दो सीटों से ले कर 1989 में 85 और 1991 में 120 तक. हालांकि, पूर्ण बहुमत उन दिनों बीजेपी की पहुंच से बाहर होता था; पार्टी को सत्ता हासिल करने के लिए सहयोगियों की जरूरत पड़ती थी. इस का मतलब था कि अपने हिंदुत्व को कम आक्रामक रखना होता था ताकि दूसरे सहयोगियों के लिए यह स्वीकार्य रहे. इस बीच, बीजेपी कई राज्यों में आराम से बहुमत हासिल कर रही थी और सीमाओं के भीतर और उपयुक्त परिस्थितियों में ये जाहिर कर रही थी कि उस की विचारधारा का असल मतलब क्या है.

2014 के बाद पूर्ण बहुमत मिलने के बाद उसे अपनी वैचारिक प्रतिबद्धताओं को पूरा करने में संकोच करने का कोई कारण नहीं रहा. हम ने देखा कि किस तरह से अनुच्छेद 370 को निरस्त किया गया, ‘तीन तलाक’ को अपराध घोषित करने वाला कानून पास हुआ और सिटीजनशिप एक्ट में संशोधन हुआ. 2019 के आम चुनाव में प्रचंड जीत के बाद एजेंडा को और बेहतर ढंग से लागू करने की बात होनी ही थी. मौका मिलने पर (और अगर मौका नहीं मिले तो मौका बना कर) बहुसंख्यक भावनाओं को बढ़ावा दिया गया जिसे कुछ लोगों ने ‘गर्व’ की संज्ञा भी दी और कुछ लोगों ने इसे ‘घृणा’ को बढ़ावा देना बताया. बहुसंख्यकवाद के दौरान धार्मिक रूप से अल्पसंख्यकों को “नई व्यवस्था” में उन की जगह दिखा दी गई.

यह कहना विवादास्पद नहीं होगा कि नरेंद्र मोदी के मुख्यमंत्री (2001-14) रहते हुए गुजरात हिन्दुत्व के रास्ते पर चलता था. उस समय धार्मिक अल्पसंख्यकों के नागरिक अधिकारों के बारे में बहुत कुछ लिखा जा चुका है, बहुत काफी कुछ रिकॉर्ड में भी दर्ज है मगर हम उसे यहां दोहराने नहीं जा रहे हैं. हालांकि, 2002 की सांप्रदायिक हिंसा के अलावा कानून और व्यवस्था की स्थिति की आलोचना वहां कभी नहीं की गई. अगले 12 वर्षों में, केवल 2006 में वडोदरा में सांप्रदायिक दंगे हुए जिसे झड़प से ज्यादा नहीं माना गया. यदि यह सही शब्द है तो सांप्रदायिक राजनीति को कई तरह से व्यवहार में लाया गया – कथित ‘मुठभेड़’ से ले कर अल्पसंख्यकों के लिए केंद्र की छात्रवृत्ति को रोकने के प्रयास तक किये गए. मगर सड़क छाप गुंडागर्दी – कोई दूसरा शब्द नहीं है – तब भी नहीं थी.

जाहिरी तौर पर अब सभी बीजेपी शासित राज्यों ने कानून और व्यवस्था की समस्याओं से निपटने के लिए बुलडोजर को बतौर रामबाण इलाज अपना लिया है. 2.8 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर की अर्थव्यवस्था और जी-20 के सदस्य होने के बावजूद हम एक तुच्छ तानाशाह जैसे दिख रहे हैं, जहां कानून का शासन सिर्फ कोरी कल्पना रह गई है. सरकार जो चाहती है वह करती है. कोई इसे चुनौती भी नहीं दे सकता. और यहां तक कि देश के सुप्रीम कोर्ट को भी तिरस्कारपूर्वक खारिज कर दिया जाता है. बेशक, बीजेपी भगवा रंग का चश्मा पहनती है और इन डिमोलिशन अभियान के दौरान यह आमतौर पर (यदि हमेशा नहीं) अल्पसंख्यक मुस्लिम समुदाय को निशाने पर रखती है.

इस सब के पीछे विचार यह है कि बर्तन को हमेशा के लिए उबालते रहा जाए. एक बेचैन समाज यदि खतरनाक ढंग से संकट के इस माहौल में रहता है तो वहां अविश्वास, बेचैनी, भय और अशान्ति देखी जा सकती है. और इस अविश्वास, बेचैनी, भय और अशान्ति की जहरीली आड़ में लोगों को क्रोधित किया जा सकता है और बहुत कम समय में आसानी से लोगों को जुटाया जा सकता है.

यह देखना वाकई में काफी मुश्किल है कि हम एक राष्ट्र के रूप में किधर जा रहे हैं ? सांप्रदायिक नफरत की कुरूपता एक ऐसी घिनौनी छाया में बदल रही है जो समाज का लगातार पीछा कर रही है. कई टेलीविजन चैनल बहुसंख्यकवादी भावना (जो उन्हें उच्च टीवी रेटिंग और वफादारी का आश्वासन देता है) का पक्ष लेते हुए बेशर्मी से नकारात्मकता का प्रचार कर रहे हैं. वे मुस्लिम तर्क को बेरहमी से कुचलते हैं. अल्पसंख्यकों को दोषी लोगों की तरह चित्रित करते हैं और आरोप लगाते हैं कि उन्होंने भारत की धर्मनिरपेक्षता का नाजायज फायदा उठाया है. वे जो करते हैं वह विवेक से परे है लेकिन यह उतना तीखा नहीं है जितना कि ट्वीटर सूनामी में दुर्गंधित क्रूरता हमें देखने को मिलती है.

एक मजबूत विपक्ष हमेशा ही मतदाताओं को प्रेरित कर सकता है. लेकिन इस की गैरमौजूदगी ने बीजेपी को विश्वास दिलाया है कि वे अपराजेय हैं. इसलिए वे आइडिया ऑफ इंडिया को बिना सोच-विचार के जल्दी-जल्दी हटा रहे हैं. आइडिया ऑफ इंडिया नेहरू की एक ऐसी सोच थी जिस ने सामाजिक एकीकरण और लोकतांत्रिक आदर्शों का जश्न मनाया है. नरेंद्र मोदी के जिस नए भारत का निर्माण वो करना चाहते हैं वो एक महान राष्ट्र के रौंदे गए लोकतंत्र के मलबे से ही उठ सकता है.

सरकार बुलडोजर का इस्तेमाल दंगाइयों अपराधियों माफियाओं को नियंत्रित करने के दंड के रूप में दिखा रही है मगर हकीकत यह है कि ऐसी कार्रवाई से गरीबों और अल्पसंख्यकों पर ज़ुल्म ढाया जा रहा है और इस तरह से दंड देना अनुचित है. महंगाई और बेरोजगारी पर बुलडोजर चलाने की बजाय भाजपा का बुलडोजर घृणा और भय से भरा पड़ा है. गंभीर अपराधों के अपराधियों के विरुद्ध ऐसी कार्रवाई नहीं की गई, जैसी कि तोड़फोड़ की कार्रवाई करने वाले लोगों के विरुद्ध की जा रही है और इस का उद्देश्य बदला लेना है. किसी भी राज्य प्रशासन को प्रभावी प्रतिरोधक के रूप में ऐसे कदम उठाने का नैतिक अधिकार नहीं है.

पैगम्बर मुहम्मद साहब पर नूपुर शर्मा और नवीन जिंदल की टिप्पणी पर हो रहे विरोध के जवाब में प्रयागराज, कानपुर व सहारनपुर में अल्पसंख्यकों को लक्ष्य कर बुलडोजर चलाने और बिना उचित न्यायिक प्रक्रिया के उन के घरों को बलपूर्वक ढहा देने की योगी सरकार की कार्रवाई की कड़ी निंदा की जा रही है. नफरत उगलने वाले जो नेता विवाद की जड़ में रहे हैं, सरकार उन्हें संरक्षण दे रही है. देश भर में प्रतिवाद हो रहे हैं मगर कई दिन बीत जाने के बावजूद शर्मा और जिंदल को गिरफ्तार नहीं किया गया है. वहीं कार्रवाई की मांग करने पर अल्पसंख्यक समुदाय के अगुवा लोगों (जिन्होंने पूर्व में सीएए-विरोधी आंदोलन में भी भाग लिया) लक्ष्य कर उन के घरों पर बुलडोजर चलवाए जा रहे हैं. अवैध निर्माण की आड़ में समुदाय विशेष को लक्षित करना और महज मुकदमे में आरोपित होने के आधार पर सीधे बु्लडोजर चला देना साम्प्रदायिक फा सीवादी व तानाशाहीपूर्ण कार्रवाई है. यदि कानून के राज के प्रति जरा भी सम्मान शेष है तो सरकार को फौरन ऐसी कार्रवाइयों को विराम देना चाहिए और शर्मा-जिंदल को अविलंब जेल भेजना चाहिए.

बुलडोजर अल्पसंख्यकों के घरों पर ही नहीं, संविधान और लोकतंत्र पर भी चल रहा है. इस बु्लडोजर राज को रोकना होगा. लोकतंत्र में विश्वास करने वाली सभी शक्तियों को एकजुट हो कर आगे आना होगा और विरोध की आवाज बुलंद करनी होगी.

फिलहाल धर्म की राजनीति विकास की राजनीति पर हावी हो चुकी है. हमें किसी धर्म से गुरेज़ नहीं है… धर्म के नाम पर होने वाले पाखंड, शोषण और अधर्म से हमें चिढ़ है.

‘धर्मविहीन राजनीति’ को महात्मा गांधी ने ‘सात पापों’ में से एक प्रमुख पाप माना था. वस्तुतः उन का उद्देश्य यहाँ राजनीति को नैतिक बनाए रखने से था. कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी व्यक्त है कि राजनीति में लोगों के ‘सर्वश्रेष्ठ नैतिक मूल्यों’ की परीक्षा होती है. इन नैतिक मूल्यों को बनाए रखने, उसे और उच्चता प्रदान करने इत्यादि के लिये कोई ‘सोर्स ऑफ मोटिवेशन’ तो चाहिये हीं और यह मोटिवेशन वे धर्म से प्राप्त करते थे. वस्तुतः ‘धर्म’ की उन की परिभाषा पश्चिम के ‘रिलीजन’ से अलग है, इसलिये पश्चिमी मूल्य जिस में ‘राज्य एवं चर्च का पूर्णतः विलगाव’ होता है से उलट वे धर्म और राजनीतिक को सहगामी मानते थे.

भारतीय परंपरा में ‘धर्म’, ‘धृ’ धातु से निर्मित है जिस का अर्थ होता है धारण करना. जैसे पितृ धर्म, मातृ धर्म, पुत्र धर्म, छात्र धर्म इत्यादि. यह लोगों को कुछ नैतिक कर्त्तव्य करने को प्रेरित करता है और इस अर्थ में राजनीति में ‘धर्म काम्य ही नहीं बल्कि अनिवार्य’ भी है. चूँकि धर्मपरायणता भारतीयों के सभी कार्य-व्यापार में दिखाई देता है. अतः राजनीति पर भी धर्म का स्वाभाविक रूप से प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष प्रभाव रहता है. सकारात्मक संदर्भ में देखें तो यह राजनीति में शुचिता बनाए रखने, राजनीतिज्ञों द्वारा जनसेवा को अपना कर्त्तव्य के रूप में देखने इत्यादि में काफी योगदान करता है. लेकिन व्यवहार में इस के नकारात्मक परिणाम अधिक दिखाई देते हैं-

सांप्रदायिक राजनीति ने आजादी के आंदोलन को तो कमजोर किया ही था साथ ही देश का धार्मिक आधार पर विभाजन भी कराया जिस से लाखों लोग बेघर हुए और हजारों लोगों की जाने गई. आज़ादी के बाद भी इसी दुषित राजनीति के प्रभावस्वरूप दंगे होते है तथा लोगों के बीच सांपद्रायिक आधार पर विद्वेष पनपता है. धर्म के अत्यधिक प्रभाव के कारण राजनीति में अधिक महत्त्व के मुद्दे जैसे-शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार इत्यादि गौण हो कर मंदिर-मस्जिद पर फोकस हो जाती है. राजनीतिज्ञ भी लोगों की इस भावना को तुल दे कर अपने उत्तरदायित्व से बचते हैं. देश का आर्थिक विकास, सामाजिक ताना-बाना तो प्रभावित होता ही है अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी देश की छवि को नुकसान पहुँचता है.

कुल मिला कर धार्मिक प्रभाव के जिस सकारात्मक परिणाम की उम्मीद की गई थी उतना भले ही न दिखे पर भाईचारा एवं बंधुत्व के उच्चतम आदर्शों की प्राप्ति के लिये यह एक ‘बाईंडिंग फोर्स’ की तरह कार्य करता है जिस का प्रयोग कर राजनीति को और भी नैतिक बना सकते हैं.

प्रा. शेख मोईन शेख नईम
आई.टी.एम. विश्वविद्यालय, ग्वालियर
7776878784