महाराष्ट्र की राजनीति में गहरा संकट सामने आया है l शिवसेना नेता एकनाथ शिंदे ने पार्टी में अलग गुट बना कर विधायकों को ले कर सूरत से आसाम की तरफ प्रस्थान किया है l इस समय महाराष्ट्र की राजनीति में खलबली मची हुई है l महाराष्ट्र में महा विकास अघाड़ी (MVA) सरकार पर अस्तित्व का खतरा मंडरा रहा है और शिवसेना के कई विधायक सूरत में डेरा डाले हुए हैं l
महाराष्ट्र की सियासत में भूचाल आ गया है l सत्तारूढ़ शिवसेना के ही एक कर्मठ सिपाही एकनाथ शिंदे ने कथित रूप से पार्टी से बगावत कर दी है और वे कुछ विधायकों के साथ गायब हो गए हैं l उन के साथ इतने विधायक बताए जा रहे हैं कि इन से महाराष्ट्र की सरकार गिर सकती है l
ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है जब भाजपा किसी राज्य की सरकार को गिराने की कोशिश कर रही हो l बीते कुछ सालों के इतिहास को उठा कर देखें तो ऐसा कई बार हो चुका है l देश के राजनीतिक गलियारों में ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है l आया राम-गया राम से शुरू होने वाला होर्स ट्रेडिंग का ये राजनैतिक पैंतरा बड़े स्तर पर हो रहा है l
देश के प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी ने 26 मई साल 2014 को शपथ ली थी। ये वो दौर था जब बीजेपी और उस के गठबंधन दल (NDA) केवल 7 प्रदेशों में ही सत्ता में थे। लेकिन आज परिस्थितियां बदल गई हैं। इसे चाहें नरेंद्र मोदी का करिश्माई नेतृत्व कहें या अमित शाह का राजनीतिक कमाल l
आज देश के एक बड़े हिस्से पर बीजेपी और उस के गठबंधन दलों (NDA) का कब्जा है। ऐसे में ये कहना भी गलत नहीं होगा कि राज्यों में चुनाव जीतने और सरकार बनाने के लिए बीजेपी ने जमीनी लेवल पर काफी काम किया है और अपने कार्यकर्ताओं को काफी मोटिवेट किया है।
इस के अलावा सरकार बनाने के लिए बीजेपी के जोड़-तोड़ करने की रणनीति का भी अहम योगदान है। यही वजह है कि बीजेपी ने गोवा, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, हरियाणा और बिहार में ऑपरेशन लोटस कर के सरकार बना ली। आईये नज़र डालते है पिछले कुछ सालों के घटना क्रम पर l
मध्य प्रदेश :-
महाराष्ट्र की महाविकास अघाडी सरकार की जो हालत इस समय हो रही है, वही हालत मध्य प्रदेश में साल 2020 में हुई थी। उस समय सामने आया था कि करीब 22 विधायक बीजेपी के संपर्क में थे । दरअसल कुल 230 सदस्यों वाली मध्य प्रदेश विधानसभा में कांग्रेस के पास केवल 114 विधायक थे और उसे बहुमत के लिए 116 विधायक चाहिए थे।
ऐसे में कांग्रेस को 4 निर्दलीय, दो बीएसपी और एक एसपी विधायक का समर्थन मिला था। इस तरह कुल 121 विधायक उस के साथ आ गए थे। वहीं बीजेपी के पास उस समय 108 विधायक थे। इसी दौरान कांग्रेस नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कांग्रेस छोड़ दी और 22 विधायकों ने विधानसभा से इस्तीफा दे दिया। इस के बाद एमपी में कमलनाथ सरकार गिर गई और आज यहां बीजेपी की सरकार है।
हरियाणा :-
हरियाणा में साल 2019 में हुए विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने जननायक जनता पार्टी (जजपा) से मिल कर सरकार बनाई थी। यहां भी चुनाव के दौरान काफी सरगर्मी रही थी लेकिन नतीजों के बाद तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने साफ कर दिया था कि राज्य में बीजेपी का मुख्यमंत्री होगा और उपमुख्यमंत्री पद जजपा को दिया जाएगा।
भाजपा ने यहां सरकार बनाने के लिए पहले निर्दलीय विधायकों का समर्थन हासिल किया था, उस के बाद जजपा से बातचीत की थी। इस के पीछे की रणनीति ये थी कि भाजपा नहीं चाहती थी कि उसे जजपा की सारी शर्तें माननी पड़ें इसलिए उस ने निर्दलीयों को साध कर बहुमत का आंकड़ा पाया। बाद में उस ने जजपा से बात की। भाजपा केवल इसलिए जजपा का साथ चाहती थी जिस से स्थिरता बनी रहे।
बिहार :-
2014 के आम चुनाव में बीजेपी ने जब नरेंद्र मोदी को चुनाव प्रचार कमेटी का प्रमुख बनाया तो उस के विरोध में जेडीयू ने बिहार में भाजपा के साथ 17 साल पुराने गठबंधन को खत्म कर लिया। 2014 के लोकसभा में मिली असफलता के बाद जेडीयू और आरजेडी ने कांग्रेस के साथ मिल कर 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में साथ चुनाव लड़ा और बिहार में सरकार बना ली।
लेकिन 26 जुलाई 2017 को नीतीश कुमार ने बिहार के मुख्यमंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया और 20 महीने पुराने महागठबंधन से पार्टी को अलग कर लिया। इस के अगले ही दिन उन्होंने बीजेपी के सहयोग से बिहार में सरकार बना ली और बिहार के मुख्यमंत्री बन गए। बिहार में लालू यादव और नीतीश कुमार के बीच टूटी दोस्ती का फायदा बीजेपी ने उठाया और जेडीयू के सहयोग से बिहार में भी अपना वर्चस्व कायम कर लिया।
अरुणाचल प्रदेश :-
साल 2016 में भाजपा अरुणाचल प्रदेश में कमल खिलाने में कामयाब रही, वो भी तब जब 60 सदस्यीय विधानसभा में उस के पास केवल 11 विधायक थे l दरअसल भाजपा ने मुख्यमंत्री पेमा खांडू के नेतृत्व वाली पीपुल्स पार्टी ऑफ अरुणाचल (PPA) के 43 में से 33 विधायक तोड़ कर अपनी पार्टी में शामिल कर लिए l
44 विधायकों के बहुमत के साथ भाजपा ने प्रदेश में अपनी सरकार बना ली l लेकिन इस के पीछे भी कई राजनीतिक घटनाक्रम हुए थे l PPA अध्यक्ष काहफा बेंगिया ने पार्टी विरोधी गतिविधियों का आरोप लगाते हुए पेमा खांडू समेत अन्य पांच विधायकों को पार्टी की सदस्यता रद्द कर दी थी l
जिस के बाद भाजपा ने खांडू और बाकी विधायकों को अपने पाले में ले लिया l नॉर्थ ईस्ट डेमोक्रेटिक अलायंस की सरकार में सहयोगी PPA ने पहले टकाम पेरियो को मुख्यमंत्री के पद के लिए चुना लेकिन अगले ही दिन राजनीतिक समीकरण बदल गए l विधायकों ने टकाम की जगह खांडूं को मुख्यमंत्री के चेहरा चुन लिया l
गोवा :-
साल 2017 के गोवा विधानसभा चुनाव में कांग्रेस 16 सीटें जीत कर प्रदेश में सब से बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी थी l भाजपा को इस चुनाव में केवल 14 सीटें हासिल हुईं लेकिन इस के बावजूद भाजपा निर्दलीय विधायकों की मदद से सरकार बनाने में कामयाब रही l
इस बात की चौरतरफा आलोचना हुई कि कायदे से सब से ज़्यादा सीटें मिलने वाली पार्टी को सरकार बनाने का दावा पेश करने दिया जाना था लेकिन वरिष्ठ भाजपा नेता रविशंकर प्रसाद ने पार्टी के कदम को सही ठहराते हुए कहा था, ‘सरकारिया कमीशन के मुताबिक कांग्रेस को पहले क्लेम करना चाहिए था लेकिन गोवा में कांग्रेस रात भर सोई रही l‘
गोवा की राजनीति में उथल-पुथल यहीं नहीं थमी l इस के ठीक दो साल बाद कांग्रेस के दो तिहाई विधायक (15 में से 10) भाजपा ने तोड़ लिए l इस के साथ ही भाजपा के विधायकों की संख्या 27 पर पहुंच गई l भाजपा का ये राजनीतिक पैंतरा सिर्फ गोवा तक ही सीमित नहीं रहा है l
मणिपुर :-
2017 के मणिपुर विधानसभा चुनावों में किसी भी पार्टी को स्पष्ट बहुमत हासिल नहीं हुआ था l मणिपुर की 60 सदस्यीय विधानसभा में कांग्रेस को 28 सीटें हासिल हुई थीं और भाजपा को 21 सीटें l बहुमत के लिए किसी भी पार्टी को 31 सीटों की जरूरत थी l
मगर इसी बीच भाजपा ने 32 विधायकों के समर्थन से सरकार बनाने का दावा पेश कर दिया l लेकिन इस पर भी भाजपा नेता रविशंकर ने टिप्पणी करते हुए कहा था, ‘कांग्रेस ने आज तक मणिपुर में सरकार बनाने का दावा नहीं किया है l’ मणिपुर में एन. बीरेन सिंह को मणिपुर के मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ दिलाई गई l
गौरतलब है कि वो एक साल पहले ही कांग्रेस छोड़ कर भाजपा में शामिल हुए थे l मणिपुर, गोवा और अरुणाचल के अलावा सब से ज्यादा चर्चित खबर अखबारों द्वारा छापी गई ‘कर्नाटक में नाटक’ थी जिसे देश के उदारवादी तबके ने लोकतंत्र का मजाक उड़ाना भी कहा l
कर्नाटक :-
जुलाई 2019 में राजनीति में चले इस हाई वोलटेज़ ड्रामे के साक्षी पूरे देश की जनता बनी l होर्स ट्रेडिंग के नए आयाम भी छुए l गौरतलब है कि 2018 में हुए कर्नाटक विधानसभा चुनाव में भाजपा को 104 सीटों पर जीत हासिल हुई थी l कांग्रेस को 80 सीटें मिली थीं और जेडीएस को 37 सीटें l
दूसरे राज्यों में जनमत और बहुमत का उदाहरण देने वाली कांग्रेस पार्टी ने इस बार भाजपा से पहले ही सरकार बनाने का दावा पेश कर दिया l कांग्रेस ने ये जेडीएस के समर्थन से किया l हालांकि गवर्नर ने भाजपा नेता बी.एस. येदियुरप्पा को सरकार बनाने के लिए आमंत्रण भेजा था l लेकिन भाजपा बहुमत नहीं साबित कर पाई l
इस बीच कांग्रेस और जेडीएस सरकार बनाने में कामयाब रही l गठबंधन ने कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री बनाया लेकिन कुछ दिन के बाद ही विधानसभा के 11 विधायकों (8 कांग्रेस और तीन जेडीएस) ने इस्तीफा दे दिया l कुमारस्वामी इस दौरान लगातार भाजपा पर विधायक खरीदने के आरोप लगाते रहे l
आखिरकार कांग्रेस-जेडीएस की सरकार गिरा कर भाजपा इस राज्य में भी सरकार बनाने में कामयाब रही l जहां भाजपा जोड़-तोड़कर सरकार बनाने में नाकामयाब रही वहां पार्टी ने विपक्ष में बैठने के लिए राजनीतिक प्रपंच रचे l जैसे सिक्किम राज्य l
सिक्किम :-
साल 2019 में सिक्किम में पिछले 25 सालों से शासन चला रही सिक्किम डेमोक्रेटिक फ्रंट (SDF) के 10 विधायक रातों-रात भाजपा में शामिल करा लिए गए l वो भी तब जब 2018 में हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा यहां से एक भी सीट नहीं जीत पाई थी l लेकिन यहां भाजपा मुख्य विपक्षी पार्टी के तौर पर उभरी l हालांकि विधायकों के इस दल बदलू कदम की बड़े स्तर पर आलोचना हुई क्योंकि जनता ने भाजपा को केलव 1.62 प्रतिशत वोट दे कर नकार दिया था l
ऑपरेशन लोटस क्या है?
सुनने में शायद ऐसा लगे कि यह सेना या किसी सुरक्षा एजेंसी का कोई मिशन है लेकिन ऐसा है नहीं l वास्तव में ये भारतीय जनता पार्टी की एक कवायद के लिए गढ़ा हुआ शब्द है जिस के तहत पार्टी राज्यों में अपनी सरकार के समीकरण साधने की कोशिश कर रही है l
इस कथित ऑपरेशन के तहत पार्टी या तो दूसरी पार्टियों के विधायकों को कथित रूप से खरीदती है या उन्हें प्रभावित करती है l ऑपरेशन लोटस के तहत बीजेपी के नेता पहले दूसरी पार्टियों के विधायकों से संपर्क करते हैं और फिर उन्हें इस्तीफ़ा देने के लिए प्रभावित करते हैं l
इन विधायकों से इस्तीफ़ा देने से बीजेपी को क्या फायदा होता है? इस्तीफे से विधानसभा की संख्या घट जाती है और इस का फायदा धीरे-धीरे किसी ख़ास पार्टी को होता है l
कहाँ से शुरू हुआ था ऑपरेशन लोटस?
2004 में जब कर्नाटक में धरम सिंह मुख्यमंत्री बने थे तब भाजपा ने सरकार गिराने की जो कवायदें की थीं तब ये शब्द ऑपरेशन लोटस पहली बार चर्चा में आया था l विपक्ष ने भाजपा पर अपने आधार के साथ ही विधायकों की संख्या बढ़ाने की कवायद को ऑपरेशन लोटस नाम दिया था l ये भाजपा का कोई ज़ाहिर अभियान नहीं है बल्कि विपक्ष और मीडिया भाजपा की कवायद को इस नाम से सम्बोधित करता रहा है l
दल-बदल विरोधी क़ानून क्या है?
साल 1985 में संविधान में 10वीं अनुसूची जोड़ी गई l ये संविधान में 52वां संशोधन था l इस में विधायकों और सांसदों के पार्टी बदलने पर लगाम लगाई गई l इस में ये भी बताया गया कि दल-बदल के कारण विधायकों या सांसदों की सदस्यता भी ख़त्म हो सकती है l
-कब-कब लागू होगा दल-बदल क़ानून?
- अगर कोई विधायक या सांसद ख़ुद ही अपनी पार्टी की सदस्यता छोड़ देता है l
- अगर कोई निर्वाचित विधायक या सांसद पार्टी लाइन के ख़िलाफ़ जाता है l
- अगर कोई सदस्य पार्टी ह्विप के बावजूद वोट नहीं करता l
- अगर कोई सदस्य सदन में पार्टी के निर्देशों का उल्लंघन करता है l
विधायक या सांसद बनने के बाद ख़ुद से पार्टी सदस्यता छोड़ने, पार्टी व्हिप या पार्टी निर्देश का उल्लंघन दल-बदल क़ानून में आता है l
लेकिन इस में अपवाद भी है……
अगर किसी पार्टी के दो तिहाई विधायक या सांसद दूसरी पार्टी के साथ जाना चाहें तो उन की सदस्यता ख़त्म नहीं होगी l वर्ष 2003 में इस क़ानून में संशोधन भी किया गया l जब ये क़ानून बना तो प्रावधान ये था कि अगर किसी पार्टी में बँटवारा होता है और एक तिहाई विधायक एक नया ग्रुप बनाते हैं तो उन की सदस्यता नहीं जाएगी l
लेकिन इस के बाद बड़े पैमाने पर दल-बदल हुए और ऐसा महसूस किया गया कि पार्टी में टूट के प्रावधान का फ़ायदा उठाया जा रहा है l इसलिए ये प्रावधान ख़त्म कर दिया गया l इस के बाद संविधान में 91वाँ संशोधन जोड़ा गया l जिस में व्यक्तिगत ही नहीं बल्की सामूहिक दल बदल को असंवैधानिक करार दिया गया l
विधायक कुछ परिस्थितियों में सदस्यता गँवाने से बच सकते हैं l अगर एक पार्टी के दो तिहाई सदस्य मूल पार्टी से अलग हो कर दूसरी पार्टी में मिल जाते हैं तो उन की सदस्यता नहीं जाएगी l ऐसी स्थिति में न तो दूसरी पार्टी में विलय करने वाले सदस्य और न ही मूल पार्टी में रहने वाले सदस्य अयोग्य ठहराए जा सकते हैं l
इन परिस्थितियों में नहीं लागू होता दल बदल क़ानून :- - जब पूरी की पूरी राजनीतिक पार्टी अन्य राजनीति पार्टी के साथ मिल जाती है l
- अगर किसी पार्टी के निर्वाचित सदस्य एक नई पार्टी बना लेते हैं l
- अगर किसी पार्टी के सदस्य दो पार्टियों का विलय स्वीकार नहीं करते और विलय के समय अलग ग्रुप में रहना स्वीकार करते है l
- जब किसी पार्टी के दो तिहाई सदस्य अलग हो कर नई पार्टी में शामिल हो जाते हैं l
स्पीकर के फ़ैसले की हो सकती है समीक्षा :-
10वीं अनुसूची के पैराग्राफ़ 6 के मुताबिक़ स्पीकर या चेयरपर्सन का दल-बदल को ले कर फ़ैसला आख़िरी होगा l पैराग्राफ़ 7 में कहा गया है कि कोई कोर्ट इस में दखल नहीं दे सकता l लेकिन 1991 में सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक बेंच ने 10वीं अनुसूची को वैध तो ठहराया लेकिन पैराग्राफ़ 7 को असंवैधानिक क़रार दे दिया l सुप्रीम कोर्ट ने ये भी स्पष्ट कर दिया कि स्पीकर के फ़ैसले की क़ानूनी समीक्षा हो सकती है l
– प्रा. शेख मोईन शेख नईम
आईटीएम विश्वविद्यालय, ग्वालियर
7776878784