बिना समझे, संभाषण में सिर्फ हामी भरना कितना गंभीर..

​​​संभाषण हम सबके जीवन का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है, और यह एक आम बात है. दिनभर में हम किसी ना किसी के साथ या अपने आप से अक्सर बातचीत करते है. अपने जीवन के इतने महत्त्वपूर्ण हिस्से के प्रति, हम कितना सतर्क है?… क्या हम जाने अनजाने में सिर्फ हामी भरते हुए, अपना बड़ा नुकसान करते है?… इन सब बातों को इस लेख के जरिए समझने का प्रयास करते है​​

संभाषण में – दिल रखकर, भरोसा खो देना कितना सही है?

ऐसा अक्सर हमारे साथ तब होता है जब हम किसी अपने से बात करते है…. लेकिन ध्यान रहें अगर अपनों के साथ बातचीत करते समय सिर्फ दिल रखने के लिए आप उनकी हां में हां मिला रहें है तो उसके आगे चलकर गम्भीर परिणाम हो सकते हैं..

बात यह भी सच है कि, संभाषण के दौरान, किसी का दिल रखने से या किसी को नाराज ना करने से रिश्तों में मिठास बनी रहती है, क्योंकि हम ये मानते है कि रिश्तों से बढ़कर कोई बात नहीं हो सकती.
लेकिन इसी बात को जरा गौर से समझने की कोशिश करे..जब कोई, खासकर अपना, आपको कुछ समझना या कुछ बताना चाहता हो और आप इस बात को बिना समझे, सिर्फ हामी भरो ये यह उसके भावना का अपमान है.

सिर्फ हामी भरना यह बात आप अपने कार्यालयीन कामकाज में या ऐसे कोई इंसान से जिससे आपका कोई खास रिश्ता नहीं उसके साथ करने से कोई बड़ा नुकसान नहीं होगा. बल्कि यहां, आपको उसका फायदा ही होगा जैसे कि आप अनचाही बहस से दूर रहेंगे.

आज हामी भरना कल कष्टदायक हो सकता है

कभी कभी ऐसा होता है कि, आपको किसी बातचीत से आगे बढ़कर दूसरे किसी विषय पर बात करने का मन हो, और इसी परिस्थिति में अक्सर हम ये भूल कर बैठते है और बस हामी भरते भरते संभाषण को आगे बढ़ाते है.
लेकिन कुछ दिन बाद जब उसी बात का संदर्भ आता है, तब आपके पास कोई जवाब नहीं होता, क्योंकि तब शायद आपने हामी भरने वाली बात को सही प्रकार से सुना ही नहीं. और तब भावनाओं को अपमानित होने का अहसास होने लगता है जो किसी भी रिश्ते के लिए ठीक नहीं.

यकीन दिलाना कैसे होता है (सिर्फ हामी भरने से नहीं)

हम इस गलतफहमी में होते है कि, आपके अपने तो आपकी बात, हर हाल में समझ ही लेंगे क्योंकि वो आपके अपने है.. अगर ऐसा है तो…आपको कैसा लगेगा जब अपनों ने आपको समझना छोड़ दिया?

समझने के लिए जो वक्त लगता है वो हम किसी अपनों कि बात के लिए ही आरक्षित रख सकते है, किसी गैर कि बात के लिए नहीं. अपनों को यकीन दिलाना इसीलिए काफी महत्त्वपूर्ण होता है.

संभाषण हर कोई कर लेता है, लेकिन..  बात को मुक्कमल कौन करता है?

मुक्कमल बाते ही अक्सर खुशियाँ लेकर आती है. चाहे वह अच्छी बात हो गया बुरी बात, उस बात बात को खत्म करके, आगे बढ़ने से अपना जीवन लाभदायक साबित होता है.
आधे अधूरे मनसे बात करना या रखना ठीक नहीं होता. या तो बात करना ही नहीं या फिर, पूरा दिल लगाकर करो. ऐसा करने से आप अपने आप को या किसी को एक तो नाराज करोगे या खुश करोगे.
लेकिन इतना तो तय है कि, जो भी होगा वो मुक्कमल होगा, सिर्फ कुछ समय के लिए नहीं.
अधूरी बाते, अधूरे लम्हे जैसे आपको अच्छे नहीं लगते वैसे किसी को भी अच्छे नहीं लगते.

संभाषण की परिसीमा

खैर इतना सब जानकर आपको यह भी लग सकता है कि आमतौर पर अच्छे रिश्तों में ज्यादातर बात रखने या कहने से पहले ही समझना हो जाता है. और इस बात को हम संभाषण या बातचीत की परिसीमा बोल सकते है. इतना खास तो कुछ एहसास ही नहीं की कोई हमारे बात सुनने से पहले समझ ले.

लेकिन हर एक चीज की हद होती है, सिवाय प्यार के. अगर आप हमेशा ये उम्मीद रखोगे की, आपको, कोई बिना कहे समझ जाए, तो फिर जिसे आप समझाना चाहते हो उसके कान क्या सिर्फ गैरो की बाते सुनने के लिए है?

अपनों के कान भी कुछ सुनने के लिए तरसते है जो उसने कभी आपसे कहीं हो, ऐसा करके ही आप अपनों को यकीन दिला सकते है कि उसके बात की आपको कितनी फिक्र है.


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© सागर वझरकर
एस सॉफ्ट ग्रुप इंडिया