बाबासाहब के जीवन का १४ दिन का लॉकडाउन

आज कोरोना एक वैश्विक समस्या बन गया है. मानों दुनिया जैसे थम गई है. लगभग पूरी दुनिया में फैले इस महामारी ने लाखों लोगों को अपनी चपेट में ले लिया है. कोरोना को रोकने के लिए हमारे देश में भी 21 दिन की तालाबंदी (लॉकडाउन) चल रही है. लोगों को ऐसे तालाबंदी की आदत ना होने के कारण ‘घर पर बैठे बैठे क्या करें’, ‘मिले हुए समय का किस तरह से उपयोग करें’ ऐसे बहुत से सवालों ने उनके मन को घेर लिया है. इसी पृष्ठभूमि पर आधारित डॉ. बाबासाहब अंबेडकर के जीवन की एक घटना अब सोशल मीडिया पर बहुत वायरल हो रही है. दुनिया भर की राज्यघटनाओं का अध्ययन करने के लिए उन्होंने खुद को अपने ही कार्यालय में 14 दिनों के लिए बंद कर लिया था.

बाबासाहब ने इस तरह खुद को किया कमरे में बंद

चांगदेव खैरमोडे जी ने लिखी अपनी किताब ‘डॉ. भीमराव रामजी अंबेडकर खंड-2’ में इस घटना का विस्तार से वर्णन किया है. इस घटना का सारांश इस प्रकार है कि, हिंदुस्तान को अतिरिक्त राजनैतिक अधिकार देने पर विचारों का आदान-प्रदान करने के लिए 1927 में साइमन कमीशन को नियुक्त किया गया था. लेकिन इस आयोग में एक भी भारतीय व्यक्ति की नियुक्ति ना करने के कारण इस कमीशन को पूरे देश ने विरोध किया. सभी भारतीयों ने इस घटना की कड़ी निंदा करते हुए विरोध जताया. इसलिए इस पर मार्ग निकालने के लिए एक प्रांतीय समिति नियुक्त की गई.

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1928 में इस समिति का गठन हुआ और उसके लिए उम्मीदवार चुनने की प्रक्रिया शुरू कर दी गई.प्रांतीय समिति में डॉ.अंबेडकर और भास्करराव जाधव भी शामिल थे. वे जानते थे कि हमारे देश के राजनैतिक अधिकारों के लिए हमें बहुत काम करना होगा. इसी कार्य को पूरा करने की राह में दुनिया की संवैधानिक प्रणाली के गहन अध्ययन के उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए बाबासाहब ने 14 दिनों के लिए खुद को एक कमरे में बंद कर लिया और दुनिया भर की संवैधानिक राज्यघटनाओं की गुणवत्तापूर्ण पुस्तकों का सखोल अध्ययन किया.

अध्ययन का महत्व

डॉ. अंबेडकर ने अर्थशास्त्र और कानून इन विषयों में सखोल एवं सूक्ष्म तरीके से अध्ययन किया था. उन्होंने राजनीति पर भी बहुत सी किताबें एवं पत्रक पढ़े थे. बाबासाहब इस बात से पूरी तरह से अवगत थे कि संविधान के प्रश्न पर मुख्य रूप से हिंदी राजनीति में चर्चा की जाएं और वे चुपचाप बैठे रहें यह उनके स्वभाव के विरुद्ध बात थी.

5 अगस्त 1928 को प्रांतीय समिति में उनके निर्वाचन की घोषणा होते ही उन्होंने 6 और 7 तारीख को अपने दोस्तों से 400 रुपए उधार ले लिए और 8 तारीख को वे प्रोफेसर पी.ए.वाडिया को साथ लेकर संविधान पर लिखी अंग्रेजी किताबें खरीदने के लिए तारापोरवाला बुक सेलर्स के पास चले गए. वहां से उन्होंने 850 रुपए की ग्रंथ संपदा खरीद ली. अगले दिन, सुबह ही वे अपने कार्यालय चले गए और दरवाज़ा, खिड़कियां बंद करके अपने साथ लाए किताबों के अध्ययन करने के लिए बैठ गए.

एक समर्पण कितना मायने रखता है

खैरमोडे जी लिखते हैं की कुछ लोग आते थे और दरवाज़ा खटखटाते थे. साहब तंग होकर उन्हें चले जाने के लिए कहते थे. लेकिन फिर और दूसरे लोग आते थे. तब साहब ने मडके बुआ से कहा कि वे दरवाजे को बाहर से ताला लगा दे और मेरे लिए खिड़की से ही सुबह, दोपहर और शाम में चाय देने की व्यवस्था करें एवं भोजन भी यहीं से दे.

मडके बुआ ने ठीक वैसे ही किया और कहा कि अगर किसी और काम की आवश्यकता पड़ी तो मैं बाहर ही हूं, मुझे आवाज देना. यह कह कर वे कार्यालय के बाहर ही सोते रहे. यह क्रम पूरे 2 सप्ताह तक चला था.इस तरह बाबासाहब ने संविधान पर व्यापक अध्ययन किया. लेकिन उसकी शुरुआत ऐसे ही हुई थी.

ज्ञान की ऐसी कठोर साधना के लिए अत्यंत प्रतिकूल परिस्थिति में उन्होंने दिन रात मेहनत ली. बाबासाहब की इस बात से हमें यही सीख मिलती है कि अगर हमने अपने मिले हुए समय की सराहना करके उसका सदुपयोग किया तो हमारे जीवन को एक निश्चित दिशा मिल सकती हैं.


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